इस्लामिक दुनिया में मौजूदा बदलावों के मद्देनजर सेना प्रमुख की यूएई और सऊदी अरब यात्रा बहुत अहम
यूएई लगातार आगे बढ़ते हुए मिडिल ईस्ट में एक अहम कूटनीतिक राष्ट्र बन गया है। ऐसा इसकी विविध आर्थिक स्थिति के कारण हुआ है, जो कि ऊर्जा पर निर्भर है और विदेशी संबंधों को संभालने में बहुत दक्ष है। दूसरी तरफ सऊदी अरब ने अपनी कूटनीतिक छवि तीन कारकों से हासिल की है: पहला, इस्लाम के महान धार्मिक स्थलों की मौजूदगी, दूसरा, बहुसंख्यक सुन्नी दुनिया का आभासी नेतृत्व और तीसरा, उसके नियंत्रण के ऊर्जा भंडार, जो उसे फलती-फूलती अर्थव्यवस्था देते हैं।
जनरल नरवणे यूएई और सऊदी अरब की आधिकारिक यात्रा करने वाले पहले भारतीय सेना प्रमुख हैं। इस्लामिक दुनिया में मौजूदा बदलावों के मद्देनजर इस यात्रा का बहुत महत्व है। भारतीय विदेश नीति में सैन्य कार्यक्षेत्र को राजनीतिक कूटनीति के महत्वपूर्ण सहायक के रूप में अपर्याप्त जगह मिली है। लेकिन 2005 से चीजें बदलना शुरू हुईं जब ज्यादा संख्या में संयुक्त सैन्य प्रशिक्षण होने लगे।
मौजूदा भारतीय सरकार ने सेना से सेना के संबंधों का महत्व जल्दी समझ लिया और सोच में यह बदलाव सैन्य कूटनीति में जरूरी प्रयोगों के रूप में नजर आया, जैसे सेना प्रमुख की ऐसे महत्वपूर्ण देशों की यात्राएं, जहां विश्वास बढ़ाने और फिर संबंध बनाने के लिए सैन्य कार्यक्षेत्र में ज्यादा गुंजाइश है। इसकी शुरुआत के लिए सरकार का म्यांमार को चुनना उचित था।
नरवणे और विदेश सचिव हर्ष श्रृंगला इस वर्ष नवंबर में यांगून गए थे। चूंकि म्यांमार की सेना पारंपरिक रूप से वहां की विदेश नीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही है, इसलिए यह समझदारी भरा कदम था कि भारतीय सेना प्रमुख को भी पहल का हिस्सा बनाया जाए। यही सिद्धांत नेपाल के मामले में भी लागू किया गया।
हिमालयी सुरक्षा के मामले में महत्वपूर्ण खिलाड़ी नेपाल को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। नेपाल ने दूरगामी परिणामों के बारे में सोचे बिना भारत के साथ कूटनीतिक आमना-सामना का प्रयोग किया। सेना प्रमुख की लंबित यात्रा के साथ आगे बढ़ना उचित फैसला था, आखिरकार 30 हजार नेपाली गोरखा सैनिक भारतीय सेना में सेवाएं देते हैं और हजारों सैनिक पेंशन पाते हैं।
इस तरह सेना प्रमुख की यूएई और सऊदी अरब की यात्रा के लिए मजबूत पृष्ठभूमि बन चुकी थी। यह एक तरह से ‘कूटनीति सुदृढ़ करना’ था, यह देखते हुए कि 2014 के बाद से भारत सरकार ने महत्वपूर्ण मध्य पूर्वी देशों के साथ रिश्ते बनाने में काफी समय और ऊर्जा खर्च की है। इसमें खाड़ी क्षेत्र को ज्यादा प्राथमिकता दी गई हैं, जिसमें यूएई और सऊदी पर ज्यादा ध्यान है। दोनों देशों में करीब 50 लाख प्रवासी भारतीय काम कर रहे हैं।
भारत उच्च कूटनीतिक आश्वासन के साथ इन देशों से अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं लिए आयात करता है। दोनों अब गल्फ कोऑपरेशन काउंसिल के महत्वपूर्ण राष्ट्र बनकर उभरे हैं। यूएई ने अमेरिका और इजराइल के साथ अब्राहम समझौते पर हस्ताक्षर की शुरुआत की। इससे मध्य पूर्व में स्थिरता लाने की प्रक्रिया में योगदान मिला, लेकिन इस्लामिक दुनिया में फूट भी पड़ी। खुद सऊदी ने इस समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं, हालांकि उसके इजराइल से संबंध अच्छे हैं।
ओआईसी में सऊदी और यूएई की सत्ता को पिछले एक साल में मलेशिया, पाकिस्तान, ईरान और तुर्की (सभी गैर-अरब देश) से चुनौती मिली है। ये सभी जम्मू-कश्मीर मुद्दे पर भारत-विरोधी रवैये पर एक हैं। हालांकि पाकिस्तान ने सऊदी और यूएई ने फिर संबंध बनाने के प्रयास किए हैं, खासतौर पर जब उससे तीन अरब डॉलर का कर्ज लौटाने को कहा गया और कई पाकिस्तानी कामगारों के वर्क वीजा रिन्यू नहीं किए गए।
इस उभरते परिदृश्य में भारत के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह जीसीसी के साथ अपने संबंध मजबूत करे। राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में संबंध अच्छे से विकसित हुए हैं। यह सैन्य क्षेत्र ही है, जहां कुछ परिवर्तनकारी हासिल कर सकते हैं। सेनाओं के बीच संयुक्त अभ्यास कुछ साल पहले शुरू हो चुका है। इसके साथ यह दर्शाने की जरूरत है कि भारत और दोनों राष्ट्रों के बीच सेना से सेना के संबंध उच्च स्तर पर संपर्क के माध्यम से स्थापित हुए हैं।
कभी पाकिस्तान के 15000 सैनिक सऊदी में तैनात थे और इसके पायलट यूएई के फाइटर क्राफ्ट उड़ाते थे। यह पाक के लिए बड़ा झटका है, जो तुर्की और ईरान के साथ कभी इस तरह का संबंध नहीं बन पाया। भारतीय नेवी और वायुसेना को भी सऊदी अरब और यूएई के साथ सहयोग बढ़ाने के लिए तैयार रहना चाहिए।
जनरल नरवणे की यूएई और सऊदी अरब की यात्राएं सही समय पर हुई हैं, जब मध्यपूर्व में तेजी से बदलाव हो रहे हैं। यह संदेश भी दे रही हैं कि भारत अब एकीकृत विदेश नीति के क्षेत्र में आ चुका है, जहां कूटनीतिक और सैन्य क्षेत्र, दोनों एक दूसरे का पूरक बनते हैं। जल्द आ रहे नए अमेरिकी प्रशासन के साथ यह संदेश भी मिलता है कि भारत स्थापित संबंधों में प्रयोग का इच्छुक है, जो आखिर में मिडिल ईस्ट में सत्ता का सही संतुलन बनाने में मदद करेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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